शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) में सिर्फ 17 फीसद अभ्यर्थियों के ही उत्तीर्ण होने की खबर चौंकाने वाली है। मूल्यांकन में सख्ती बरती गई, परचा कठिन आया या परीक्षार्थियों की तैयारी कम थी। कोई एक या सभी कारण हो सकते हैं पर सबसे अहम कारण की तलाश जरूरी है। यह काम अधिक कठिन भी नहीं है।
हरदोई से आयी एक खबर समस्या पर कुछ प्रकाश डाल सकती है। यहां परिषदीय विद्यालयों में शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में टीईटी अंक पत्र में गड़बड़ी पर 66 शिक्षक-शिक्षिकाओं को बर्खास्त कर दिया गया है। इनमें से ज्यादातर वे लोग थे जिन्होंने 2011 में हुई टीईटी में भाग लिया था और मेरिट के आधार पर चयनित हुए थे। सिर्फ हरदोई ही नहीं, लगभग हर जिले से ऐसी खबरें आ चुकी हैं या आ रही हैं। जिस तरह टीईटी अंक पत्र में गड़बड़ी की शिकायत है, उसी तरह शिक्षा स्नातक उपाधि (बीएड) के अंक पत्रों में गड़बड़ी की शिकायतें मिली हैं। अब जरा इन तथ्यों के आलोक में विचार करें।
ऐसा नहीं कि जिन लोगों ने इस बार टीईटी दिया, वे मास्टरी का ख्वाब लेकर पहली बार कोई परीक्षा देने गए थे। पहले वे कहीं न कहीं से स्नातक हुए, फिर बीएड प्रवेश परीक्षा दी, काउंसिलिंग के बाद किसी कॉलेज में दाखिला लिया और महंगी फीस अदा कर कोर्स पूरा किया। इसके बाद वे टीईटी में शामिल हुए थे। फिर ऐसा परिणाम क्यों। सवाल सिर्फ 83 फीसद युवाओं के अयोग्य ठहराये जाने का नहीं बल्कि उस पूरी प्रक्रिया के विफल होने का है जिससे गुजर कर वे इस परीक्षा तक पहुंचे। बीएड कॉलेजों ने आखिर इन्हें क्या पढ़ाई और तैयारी कराई। वास्तविकता यह है कि अधिकतर को पढ़ाई कराई ही नहीं गई। सिर्फ उनका दाखिला लिया गया, फीस ली गई। बीएड करते ही सरकारी शिक्षक की नौकरी पक्की होने का सब्जबाग दिखाकर अतिरिक्त रकम की भी वसूली हुई और घर बैठे डिग्री थमा दी गई।
यह कोई ऐसा तथ्य नहीं जो पहली बार उद्घाटित हो रहा बल्कि बीएड कॉलेजों के कदाचार की खबरें लगातार आती रही हैं। सिर्फ बीएड ही नहीं अधिकतर इंजीनियरिंग व प्रबंधन कॉलेजों का भी यही हाल है। परीक्षाएं सिर्फ नाम की होती हैं, फीस जमा होती है और डिग्री मिल जाती है। जब असल परीक्षा आती है तो परिणाम वही निकलता है जो टीईटी का निकला। ये परिणाम शिक्षा के बाजारीकरण का आईना पेश करते हैं। अक्स दुरुस्त करने की जरूरत है।
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