गरीबी के चलते बड़ों का पेट पालने के लिए मासूमों से मजदूरी कराने में इटवा कस्बे में संचालित चाय दुकानें काफी आगे हैं। जिन हाथों में किताबें होनी चाहिए, उनकी दिनचर्या जूठे गिलास धोने से शुरू होती है। बालश्रम पर रोक लगाने के प्रति मानवाधिकार आयोग समेत शासन प्रशासन कितना भी गंभीर हो, मगर यहां जिम्मेदार आंख पर पट्टी बांध बैठे हैं। कस्बे में दो दर्जन होटल ऐसे हैं, जिन पर नाबालिग बच्चों से काम लिया जा रहा है। ठंडी, गर्मी हो या बरसात, सुबह से ही लोगों के जूठे गिलास धोने की दिनचर्या बन चुकी है। कस्बे से कोसों दूर से आकर काम कर रहे नाबालिगों को पेट की खातिर हंसते-हंसते काम करने की मजबूरी रहती है। पढ़ने की उम्र में काम के बोझ से मासूमों को लादने में मां बाप की गरीबी है या लाचारी इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है। चाय की दुकान पर काम करने वाले दर्जनों बच्चों ने बताया कि होटल मालिक खाना देते हैं, महीना पूरा होने पर मजदूरी लेने उनके मां अथवा बाप आकर ले जाते है। ऐसा कोई दिन नहीं बचता जिस दिन होटल मालिक की डांट न सुननी पड़ती हो। कभी-कभी तो मार खाने की भी आदत बन गई है। बाल श्रम रोकने के जिम्मेदार भी यहां कभी अपनी शक्ल नहीं दिखा रहे, जिससे कस्बे में बाल मजदूरों की संख्या में दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती दिख रही है। सवाल यह उठ रहा है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत एक से कक्षा आठ तक के बच्चों को मुफ्त किताबों के साथ भोजन व ड्रेस की व्यवस्था सर्व शिक्षा अभियान द्वारा की गई है। ऐसे में लोग गरीबी का बहाना बना कर देश के भविष्य माने जाने वालों बच्चों को कम उम्र में अशिक्षा व कुपोषण के मुहाने पर भेजने में लोग आगे क्यों आते दिख रहे है। यह समाज व प्रशासन के लिए एक बड़ा प्रश्न है।
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