काश ! फटकार से सुधर जाएं जिम्मेदार
घरों से बोरी लेकर आते हैं बच्चे सुप्रीम कोर्ट ने विद्यालयों के बच्चों को टाट बोरे की फट्टी पर बैठालने पर नाराजगी जताई है लेकिन देखा जाए तो जिले के कुछ प्राथमिक विद्यालयों में यह भी नहीं है। बच्चे अपने स्कूली बैंगों में घरों से बोरी लेकर आते हैं और उन्हीं पर कक्षाओं में बैठते हैं। विद्यालय विकास अनुदान में बच्चों को बैठालने के संसाधन का भी इंतजाम किया जाना चाहिए लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता।
गायब हो चौकी और बेंच ऐसा नहीं कि बच्चों के बैठने का इंतजाम नहीं किया गया था। कुछ वर्ष पूर्व प्राथमिक के बच्चों के लिए चौकी और उच्च प्राथमिक स्कूलों में डेस्क और बेंच का इंतजाम किया गया था लेकिन कुछ विद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश में चौकी और बेंच गायब हो गए हैं। जहां हैं भी वह कमरे में बंद हैं और बच्चे जमीन पर बैठने को मजबूर हैं।
परिषदीय विद्यालयों की दशा देखकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाई है। देखा जाए तो इलाहाबाद में ही नहीं शायद ही ऐसा कोई जिला हो जहां पर शिक्षा के नाम पर खेल न हो रहा हो। हरदोई में तो पूरी तरह से व्यवस्था का मजाक उड़ाया जा रहा है। शिक्षा की गुणवत्ता तो दूर की बात है विद्यालयों में बच्चों को मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मिलती हैं। बातें तो आसमान की हो रही हैं लेकिन हकीकत पूरी व्यवस्था की पोल खोल रही है। विभागीय लोगों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद में व्यवस्था सुधार का जो आदेश दिया है, पूरे प्रदेश में लागू हो जाए तो बच्चों का उनका हक मिल जाए।
बेसिक शिक्षा ही समाज की नींव है और इसके सुधार को लेकर शासन प्रशासन गंभीर है। सर्व शिक्षा अभियान में तो दिल खोलकर धनराशि खर्च हो रही है। शिक्षा की गुणवत्ता से लेकर संसाधनों पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है लेकिन सब कुछ कागजों पर ही हो रहा है। जिले के कुछ विद्यालयों को छोड़ दें तो अधिकांश की यही दशा है। केंद्र और प्रदेश सरकार विद्यालयों को साफ सुथरा और शौचालयों पर जोर दे रही है। बच्चों के लिए पेयजल के लिए इंडिया मार्का हैंडपंप से लेकर बाटर टैंक तक बनवाये गए हैं लेकिन देखा जाए तो जिले के करीब 40 फीसद विद्यालयों में बच्चों के शौचालयों का इंतजाम नहीं है। कागजों पर तो व्यवस्थाएं सही हैं लेकिन हकीकत में ताला पड़ा है। तो कई विद्यालयों के शौचालयों में दरवाजे तक नहीं हैं। इसी तरह हैंडपंपों में कई केवल ठूठ है तो कहीं वर्षों से खराब पड़े हैं। ऐसा नहीं कि जिम्मेदार जानते नहीं हैं। सब कुछ जानते हुए भी चुप हैं और इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
मरम्मत और रंगाई पुताई पर खर्च होते हैं लाखों रुपये : विद्यालयों की मरम्मत से लेकर रंगाई पुताने के लिए प्रति वर्ष लाखों रुपये खर्च होते हैं। देखा जाए तो प्रति विद्यालय में विद्यालय विकास अनुदान पांच हजार रुपये जिसमें मरम्मत आदि का काम कराया जाता है तो प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में उनके कक्षा कक्षों के अनुसार पांच से 10 हजार 500 रुपये भेजे जाते हैं। लेकिन विद्यालयों में कुछ दिखाई नहीं देता है। कुछ विद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश में रंगाई पुताई तक नहीं कराई जाती है। बाउंड्रीवाल गिरी रहती है तो पानी की टंकी में ही गंदगी छाई रहती है लेकिन कोई देखने वाला नहीं है।
विद्यालय बने तबेला बांधे जा रहे जानवर : परिषदीय विद्यालयों की दशा के लिए विभाग तो जिम्मेदार है ही कुछ अभिभावक और ग्रामीण भी जिम्मेदार हैं। ग्रामीणों के बच्चे विद्यालयों में पढ़ते हैं लेकिन कोई विद्यालयों को खलिहान बना देता है तो कोई तबेला और जानवर तक बांधे जाते और तो और विद्यालयों के दरवाजे और खिड़की भी कुछ स्थानों पर तोड़ दिए जाते। शिक्षक शिक्षिकाएं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते और मजबूर होकर बैठे रहते हैं
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