लखनऊ। प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों, राजकीय महाविद्यालयों और सहायता प्राप्त महाविद्यालयों में तैनात शिक्षकों के भौतिक सत्यापन और उनके शैक्षणिक अभिलेखों की जांच के लिए कमेटी गठित करने के आदेश का विरोध शुरू हो गया है। शिक्षक इस आदेश को अपमानजनक मान रहे हैं। शिक्षक संगठन कानूनी लड़ाई लड़ने के विकल्प पर भी विचार कर रहे हैं। बहस का विषय बना है मुद्दा ः शासन ने सभी जिलों में जिलाधिकारी की तरफ से नामित अपर जिलाधिकारी (डीएम) को कमेटी का अध्यक्ष बनाया है। इसी तरह स्थलीय जांच के लिए जिलों में गठित होने वाली दो अलग-अलग उप समितियां में उपजिलाधिकारी (एसडीएम) को अध्यक्ष बनाया गया है। शासन के उच्च शिक्षा विभाग का यह आदेश जारी होते ही शिक्षकों में नाराजगी व्याप्त हो गई। विश्वविद्यालय व महाविद्यालय स्तर पर बने शिक्षकों के व्हाट्सएप ग्रुप में यह विषय बहस का मुद्दा बना हुआ है। उनका कहना है कि इस आदेश से तो कुलपतियों की भी जांच एसडीएम की अध्यक्षता वाली कमेटी करेगी, क्योंकि कुलपति भी किसी न किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं। इसी तरह विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति, कोषाध्यक्ष व विभागाध्यक्ष तक की जांच भी एसडीएम करेंगे। दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष प्रो. विनोद कुमार सिंह ने कहा कि जांच का यह आदेश पूरी तरह अनुचित है। लखनऊ विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के महामंत्री डॉ. विनीत वर्मा ने भी कहा कि इस मुद्दे पर शिक्षकों में काफी नाराजगी है। शिक्षकों की भावनाओं के अनुरूप निर्णय लिया जाएगा।
आदेश अपमानजनक और संविधान विरोधी लुआक्टा :- लखनऊ विश्वविद्यालय संबद्ध महाविद्यालय शिक्षक संघ (लुआक्टा) के अध्यक्ष डॉ. मनोज पांडेय ने कहा कि यह आदेश अपमानजनक होने के साथ-साथ संविधान विरोधी भी है। संविधान के अनुच्छेद 311 (डॉक्ट्रिन आफ प्लेजर) में में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति की जांच उससे नीचे की रैंक वाला अफसर नहीं कर सकता है। जांच कमेटी के अध्यक्ष व सदस्यों का वेतनमान प्रोफेसरों से कम है। शासन ने अपना आदेश संशोधित नहीं किया तो संगठन कानूनी लड़ाई लड़ेगा। शिक्षकों को जांच से कोई इनकार नहीं है लेकिन जांच प्रक्रिया संविधान सम्मत होनी चाहिए।
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