नैतिक शिक्षा को धर्म से जोड़ना गलत : सुप्रीम कोर्ट
केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत श्लोक के पाठ का मामला, 2012 के आदेश को चुनौती
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नैतिक मूल्यों को विकसित करने वाली प्रार्थनाओं को किसी धर्म विशेष से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी केंद्रीय विद्यालयों में सुबह की सभा के दौरान 'असतो मा सद्गमय' का पाठ अनिवार्य करने के केंद्र के दिसंबर 2012 के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान की।
जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने कहा, इस तरह के पाठ नैतिक मूल्यों को विकसित करने के लिए होते हैं। स्कूल में हमें जो नैतिक मूल्य हासिल होते हैं, हम अब भी उसे अपने जीवन में आत्मसात करते हैं। बुनियादी शिक्षा में इसका बहुत महत्व है। याचिकाकर्ता का कहना है कि सरकार का आदेश संविधान के अनुच्छेद 28(1) का उल्लंघन करत है। यह एक विशिष्ट समुदाय क विशिष्ट प्रार्थना है। मामले की अग सुनवाई 8 अक्तूबर को होगी।
केंद्र ने दी थी दलील
जो श्लोक सार्वभौमिक सत्य हैं, उन पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए
केंद्र ने सुनवाई के दौरान तर्क ने दिया था कि संस्कृत के वे श्लोक जो सार्वभौमिक सत्य की बात करते हैं, उनके इस्तेमाल पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता है। जैसे सुप्रीम कोर्ट के प्रतीक में यतो धर्मस्ततो जयः का प्रयोग किया गया है। यह भी उपनिषद से लिया गया है लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक हो गया है।
यह है मामला
वकील विनायक शाह ने वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इसे जनवरी 2019 में दो न्यायाधीशों की पीठ ने बड़ी पीठ को यह कहते हुए भेज दिया था कि याचिका संविधान के अनुच्छेद 28 (1) के महत्व पर सवाल उठाती है। इसमें कहा गया है कि राज्य द्वारा वित्त पोषित शिक्षण संस्थानों में कोई भी धार्मिक निर्देश नहीं होगा।
जमीयत उलमा-ए-हिंद ने भी आवेदन दायर करते हुए कहा है कि प्रार्थना का पाठ एक विशेष धर्म पर आधारित है और यह संविधान का उल्लंघन है।
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